Lekhika Ranchi

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आचार्य चतुसेन शास्त्री--वैशाली की नगरबधू-


106 . प्रत्यागत : वैशाली की नगरवधू

कृतपुण्य सेट्ठी की वैशाली के अन्तरायण में धूम मच गई । सेट्रियों के निगम ने उसका स्वागत - सत्कार करने को गणनक्षत्र मनाया । नगरसेट्ठि ने उसे घर बुलाकर गंधमाल दे सम्मानित किया । उसके ठाठ -बाट , धनवैभव तथा विक्रेय सामग्री को देख वैशाली का सेट्ठिनिगम सन्न रह गया । सर्वत्र यही चर्चा होने लगी कि चम्पा का यह महासेट्ठि चम्पा के पतन के बाद राजकुल की संपूर्ण संपदा लेकर वैशाली में भाग आया है और अब वह वैशाली ही में रहकर व्यापार- वाणिज्य करेगा। सेट्ठि कृतपुण्य के साथ दासों , कम्मकरों , सेवकों की बड़ी भरमार थी । उनकी धन - सम्पत्ति , वाहन और अवरोध का वैभव विशाल था । घर - घर इस भाग्यवान् सार्थवाह के सौभाग्य की चर्चा थी , कि कालिका द्वीप में उसे स्वर्ण- रत्न की एक खान मिल गई थी और वह उससे अपना जहाज़ भर लाया है। परन्तु सबसे अधिक चर्चा की वस्तु उसके आठ समुद्री अश्व थे, जो वायु- वेग के समान चंचल और मूर्ति की भांति सुन्दर थे। इन अश्वों में से एक पर चढ़कर जब उसका पुत्र प्रात : और सन्ध्या समय वायु - सेवनार्थ अपने शिक्षकों और सेवकों के साथ राजमार्ग पर निकलता था , तो सब कोई अपने - अपने काम छोड़ - छोड़कर उन्हीं अश्वों की , अश्व के आरोही साक्षात् कार्तवीर्य के समान सुन्दर किशोर सेट्ठिपुत्र की और गृहपति कृतपुण्य सेट्ठि की चर्चा सत्य - असत्य काल्पनिक करने लगते । बहुत लोग बहुविध अटकल अनुमान लगाते ।

पाठक इस ‘ कृतपुण्य को भूले न होंगे । यह भाग्य -विदग्ध हर्षदेव का नूतन संस्करण था ।

वन में बटारू ब्राह्मण से विदा लेकर हर्षदेव पावापुरी गया और इन्द्रभूति ब्राह्मण से मिला। इन्द्रभूति ने उसे आदरपूर्वक अपने यहां ठहराकर विविध वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर अपने परिचितों, मित्रों और नगरनिगमों से उसका परिचय कराया तथा उसे सेट्ठिपुत्र कहकर उन्हें परिचय दिया । वहां उसने इन्द्रभूति की सहायता और सम्मति से बहुत - सी मूल्यवान् विक्रेय सामग्री मोल ली और उसे पचास अश्वतरियों पर लाद तथा चार दास और उत्तम अश्व मोल ले , अश्वारूढ़ हो वह चम्पा में जा पहुंचा। चम्पा के गृहपति सागरदत्त के घर पर पहुंच उसने कृतपुण्य कहकर अपना परिचय दिया । सागरदत्त सेट्ठि के अनेक जलयान ताम्रलिप्त और स्वर्णद्वीपों में विविध व्यापार की सामग्री लेने - बेचने जाते रहते थे और वह अतिसमृद्ध श्रीमन्त निगमपति सेट्ठि था । उसके कोई पुत्र न था , केवल एक वही मृगावती नाम की पुत्री थी जो कृतपुण्य को ब्याही थी । उसका चिरकाल से उसे कोई समाचार नहीं मिला था । अब वह अकस्मात् अपने जामाता को देख परम हर्षित हुआ । उसने बड़े प्रेम - सम्मान से उसका स्वागत किया । उसकी सहायता से उसका सब माल अच्छे मूल्य में बिक गया और महान् धनराशि उसे प्राप्त हुई । श्वसुर से कहकर उसने वीतिभय नगरी से मृगावती और उसके पुत्र को भी बुलवा लिया और वह कुछ काल स्त्री - पुरुष और ससुराल का परिपूर्ण आनन्द भोगता रहा। फिर ब्राह्मण की बात को स्मरण कर तथा वैशाली को लौटने की उत्सुकता से श्वसुर से आग्रह कर विविध बहुमूल्य वस्तुओं से तीन जहाज़ भर अपनी स्त्री मृगावती , पुत्र पुण्डरीक और दास - दासियों - कम्मकरों को संग ले जल -यात्रा को निकल पड़ा ।

वह माल लेता -बेचता , लाभ उठाता बंग, कलिंग, अवन्ती , भोज , आन्ध्र , माहिष्मती , भृगुकच्छ और प्रतिष्ठान, जल- थल में जैसा सुयोग मिला, घूमता फिरा । उसने ब्राह्मण की दी हुई सूची के अनुसार बंग में वैश्रमणदत्त , कलिंग में वीरकृष्ण मित्र, अवन्ती में श्रीकान्त , भोज में समुद्रपाल, आन्ध्र में स्यमन्तभद्र , माहिष्मती में सुगुप्त, भृगुकच्छ में सुदर्शन और प्रतिष्ठान में सुवर्णबल से मिलकर ब्राह्मण का गूढ़ सन्देश दिया और उनका गूढ़ सन्देश ब्राह्मण के लिए प्राप्त किया ।

इसी यात्रा के बीच जब वह पूर्वीद्वीप - समूहों में विचरण करता हुआ हस्तिशीर्ष द्वीप में पहुंचा, तो उसकी भेंट कई अन्य सार्थवाहों से हो गई , जो उसी की भांति विक्रेय वस्तु द्वीप- द्वीपान्तरों में बेचने जा रहे थे। हस्तिशीर्ष द्वीप से उसने उनके साथ ही मिलकर यात्रा की । दैवसंयोग से कुछ दिन समुद्र में यात्रा करते हुए उनके समुद्रयान झंझावात में फंस गए, वे सब यान टूट -फूटकर आरोहियों सहित समुद्र में डूब गए। केवल एक पोत , जिसमें कृतपुण्य और उसके पत्नी - पुत्र दास और धन -स्वर्ण था , किसी भांति कई दिन तक लहरों पर उथल - पुथल होता समुद्र-बीच अज्ञात और निर्जन कालिका द्वीप के किनारे जा टकराया । किसी प्रकार भूस्पर्श करने से उन लोगों को ढाढ़स हुआ । द्वीप में मीठा जल पी और स्वादिष्ट फल - मूल खाकर उन्होंने कई दिन की भूख -प्यास तृप्त की । परन्तु द्वीप जनरहित है, यह देख उन्हें दुःख हुआ। फिर भी स्वादिष्ट फल - मूल और मीठे जल की बहुतायत से उन्हें बड़ा सहारा मिला । उन्होंने अपने समुद्रयान की मरम्मत की तथा अनुकूल वायु की प्रतीक्षा में वहीं पड़े रहे।

इसी द्वीप में फल - मूल की खोज में घूमते - भटकते उसे माणिक्य और स्वर्ण की खाने मिल गईं। इस प्रकार दुर्भाग्य में से भाग्योदय देखकर वह उन्मत्त की भांति हर्ष से नाचने लगा । उसने दासों और कम्मकरों की सहायता से स्वर्ण और रत्न की राशि अपने जहाज में भर ली । इतना अधिक बेतोल स्वर्ण तथा सूर्य के समान तेजवान् त्रिलोक- दुर्लभ कुडव -प्रस्थ भार के माणिक्य पाकर उसके रक्त की एक - एक बूंद उसकी नाड़ियों में नाचने लगी । अब वह पृथ्वी पर सबसे बड़ा धन कुबेर था । मनुष्य की दृष्टि से न देखे गए रत्न उसके चरणों में

परन्तु उसके सौभाग्य की समाप्ति यहीं पर नहीं हुई । पूर्णिमा को चन्द्रोदय होने पर ज्यों ही समुद्र में ज्वार आया, बहुत - से अद्भुत समुद्री अश्व जल में बहकर द्वीप के तट पर आए और द्वीप में विचरण करने लगे । उन अद्भुत और विद्युत्वेग के समान चपल तथा मनुष्य - लोक में दुर्लभ महाशक्ति - सम्पन्न वाडव अश्वों को देख प्रथम तो कृतपुण्य और उसके संगी-साथी भयभीत होकर एक योजन दूर भाग गए, परन्तु जब समुद्र में ज्वार उतर गया और वे अश्व भी समुद्र - गर्भ में चले गए, तब वे लोग फिर समुद्र- तट पर आकर पराक्रमी अश्वों को देखते रहे ।

कृतपुण्य ने इन अश्वों को पकड़कर ले जाने का निश्चय किया । अन्तत : वह साहसिक सामन्त था । उसमें सुप्त आखेट - वासना जाग्रत हई और अश्वों को पकड़ने का सम्पर्ण आयोजन विचारकर वह आगामी पूर्णिमा तक समुद्र में ज्वार आने की प्रतीक्षा में उसी द्वीप में ठहर गया ।

समुद्र में पूर्ण चन्द्रोदय होने पर फिर ज्वार आया । फिर वैसे ही अनगिनत वाडव अश्व समुद्र की तरंगों पर तैरते हुए द्वीप में घुस आए। कृतपुण्य ने एक ऊंचे स्थान पर बैठकर वीणा बजानी प्रारम्भ की । वीणा की मधुर झंकृति से विमोहित हो वे अश्व उसी शब्द की ओर आकर्षित हो अपने लम्बे - लम्बे कान खड़े कर खड़े- के - खड़े रह गए । तब कृतपुण्य के संकेत से उसके दासों ने उन्हें विविध सुगन्ध - द्रव्य सुंघाए , विविध स्वादिष्ट मधुर खाद्य - पेय खाने को दिए। इस प्रकार वीणा की ध्वनि से विमोहित तथा विविध गन्ध - खाद्य - पेय से लुब्ध बने वे अश्व उन मनुष्यों से परिचित की भांति बारम्बार मुंह उठाकर खाद्य - पेय मांगने तथा खड़े- खड़े कनौतियां काटने लगे । समुद्र के पीछे लौटने का उन्हें भान ही न रहा। ज्वार उतर गया और कृतपुण्य के दासों ने उन्हें युक्ति से दृढ़ बन्धन से बांध लिया तथा जलयान पर चढ़ा लिया ।

इस अद्भुत और अतर्कित रीति से देव - मनुष्य - दुर्लभ वाडव अश्व और अमोघ रत्ननिधि इस अक्षेय द्वीप से लेकर कृतपुण्य ने अनुकूल वायु देख , जल - ईंधन और फल - मूल आदि भरकर प्रस्थान किया तथा देश - देश में होता हुआ वह भृगुकच्छ पहुंचा। भृगुकच्छ में उसने बहुत - सा माल क्रय किया , तथा स्थल - मार्ग से सार्थवाह ले चला । इस समय उसका सार्थवाह एक चतुरंगिणी सेना की भांति था । भृगु कच्छ में ठहरकर उसने चतुर, गुणी और शास्त्रज्ञ अश्वपालों एवं अश्वमर्दकों को नियुक्त किया जिन्होंने अश्वों के मुंह - कान बांध , वल्गु चढ़ा , तंग खींच, चाबुक और वेत्र की मार - मारकर विविध भांति आज्ञा पालन और चाल चलने की शिक्षा दी । इस प्रकार शिक्षण प्राप्त कर और बहुमूल्य रत्नाभरणों से सुसज्जित होकर जब ये अश्व लोगों की दृष्टि में पड़े, तब सब उन्हें देखते ही रह गए ।

इस प्रकार भाग्य की नियति से विक्षिप्तावस्था में वैशाली को त्यागने के सात वर्ष पश्चात् हर्षदेव ने महासेट्ठि सार्थवाह कृतपुण्य के रूप में वहां प्रवेश किया और उत्तरायण में सहस्र स्वर्णशिखरों वाला श्वेतमर्मर का हर्म्य बनवा , दास- दासियों, कम्मकरों , लेखकों , कर्णिकों, दण्डधरों, द्वारपालों , रक्खकों से सेवित हो देखते - ही - देखते सर्वपूजित हो वह वहां निवास करने लगा और अपनी दिनचर्या से ऐश्वर्य - चमत्कार दिखा-दिखाकर नगर , नागर और जनपद को चमत्कृत करने लगा , तो कुछ दिन तक तो लोग सब - कुछ भूलकर सेट्टि कृतपुण्य की ही चर्चा वैशाली में घर - घर करने लगे ।

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